व्यास दंड नव्हे काठी, खाली वाचा तयाच्या गोष्टी.

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व्यासदंड…..


परिक्रमावासी क्यो रखते हैं साथ मे व्यासदंड
नर्मदाजी के तटपर अनेक आश्चर्यकारक घटनाएं हो चुकी है।आज भी हो रही हैं। और आगे भी होते रहेगी! आज मै आपको ऐसेही एक घटना बताने जा रहा हूं।
आपको ज्ञात होगा की, हर परिक्रमा वासी के हाथ में एक दंड रहता है। उसे हि “व्यासदंड” कहते है। लेकिन जादातर लोगों को इसके बारे मे जानकारी नही रहती। हम मानते चलते है की, यह दंड अपने रक्षा के लिए ,आधार के लिए होता है। लेकिन वास्तविकता कुछ और हि है!
आप सब को मालुम हि होगा की, व्यास जी पराशर मुनी के बेटे है। उनकी मां सत्यवती एक केवट कन्या थी। और उसी वजह से व्यासजी का बचपन केवट के घर गंगा किनारे बिता। लेकिन फिर भी उनमे पराशर मुनीके संस्कार थे!


त्रेतायुग के अंत मे और द्वापार युग के शुरवात मे सब ऋषींओ ने मिलकर अपना प्रमुख चुनने के लिए सोचा। उसके लिए उन्होंने इंद्रराज सहित अन्य देवों की भी सहायता ली।उस समय नारदजी बोले, गंगा तट पर केवट के घर में पला हुआ एक तेजस्वी बालक है। मेरे खयाल से वो इस पद के लिए योग्य है!
नारदजी की बात टालने का कोई प्रश्नही नहीं था। उसके बाद व्यासजीं पर कुछ औपचारिक संस्कार करके उन्हें “व्यासपद” पर सन्मान पूर्वक बिठा दिया।( इसलिए आज भी धार्मिक संमेलन में जहां प्रमुख व्यक्ती बैठता है, उस जगह को व्यासपीठ कहते हैं।)
मैंने यह कथा इसलिए बताई की, समाज में , ऋषि- मुनियों में व्यासजी का महत्व कितना था!


तो ऐसे महान व्यासजी का आश्रम नर्मदाजी के दक्षिण तट पर स्थित था। एक दिन व्यासजी ने आश्रम में यज्ञ का आयोजन किया। गौतम, भृगु, पराशर,मांडव्य,याज्ञवल्क, लोमेश, च्यवन, पिप्पलाद, दधिचि जैसे हजारों ऋषि-मुनि आ गए।
लेकिन जब उनके ध्यान में यह बात आयी के, व्यासजी का आश्रम दक्षिण तट पर स्थित है, तो फिर सब चूप बैठे। कोई बात करने को तैयार नहीं था। आखिर में पराशर मुनि अपने बेटे से बोले, व्यास तुम्हारा आश्रम दक्षिण तट पर है और दक्षिण तट तो पितरों का तट होता है। इसलिए यहां कोई भी ऋषि-मुनि आपकी पूजा ग्रहण नहीं करेंगे!
व्यासजी बोले , ठीक है। लेकिन कुछ देर ठहरिए। मैं जरा आता हूं।…….
इतना कह कर वो आश्रम से निकल गए।…… सिधा नर्मदाजी के तट पर। उस समय उन्होंने मां नर्मदाजी की , बहुत ही लुभावनी स्तुति की
जय चंद्र दिवाकर नेत्र धरे
जय पावक भूषित वक्रवरे
जय भैरव देह निलीन परे
जय अंधक रक्त विशेष करे ।।
और मैया को प्रसन्न किया।


मैयाजी बोली, मै तुम्हे प्रसन्न हूं। बोलो, तुम्हारी क्या इच्छा है?
व्यासजी कहने लगे, मेरा आश्रम दक्षिण तट पर है। और आश्रम दक्षिण तट पर स्थित होने के कारण, आश्रम में आए हुए ऋषि-मुनि मेरी पूजा स्विकार नही करते है।
मेरी एक आपसे बिनती है की, आप अपना प्रवाह इस तरह से बदलो के मेरा आश्रम उत्तर तट पर स्थित हो!
मैया बोली ,यह कैसा संभव है? मैं उलटी दिशा में मेरा प्रवाह कैसा करुं? यह असंभव है। कोई दूसरा वर मांगलो।
व्यासजी अपने बात पर कायम थे। आखिर मैया अपने बालक के सामने हार गयी। और बोली, ठीक है, तुम मुझे रास्ता बताओ। मैं तुम्हारे पिछे पिछे आऊंगी।
व्यासजी के हाथ में दंड था। उन्होंने उस दंड से जमीन पर लकिरे खिंचने शुरू की। उस दंड ने दिखाए दीए रास्ते से मैया का प्रवाह बहनें लगा। कुछ दूर दक्षिण की ओर बहने के बाद मैया उत्तर की ओर बहने लगी। और व्यासजी का आश्रम जो दक्षिण तट पर था ,वो उत्तर तट पर स्थित हो गया!


यह चमत्कार देख कर, सब खुश हो गए। ऋषि- मुनीओंने नर्मदाजी में स्नान किया। तर्पण किया।बाद में यज्ञ की शुरुआत हुई।यज्ञ सम्पन्न हुआ। सबने सागपात और फलों का आनंद लिया। और व्यासजी द्वारा कि गई पूजा ग्रहण कर के अपने अपने आश्रम लौट गए!
व्यासजी का आश्रम मंडला में था। आप ध्यान से देखेंगे तो इस जगह मैया “चंद्राकार” है।
व्यासजी ने जिस दंड से नर्मदा मैया प्रवाह परावर्तित किया, हजारों ऋषि-मुनिंओंको संतुष्ट कर दिया, उसके स्मरण में यह “व्यासदंड” हर एक परिक्रमा वासी के पास रहता है।


परिक्रमा का संकल्प लेते समय इस दंड की पूजा करते है ‌ उसे हल्दी-कु़ंकूम लगाते है ‌। दंड को एक धागा बांधते है‌ अब वो दंड साधारण दंड नही रहता। अब वो “व्यासदंड” बन जाता है। परिक्रमा वासी को राह दिखाता है।परिक्रमा वासी हर दिन उस दंड को स्नान करवाता है, उसकी पूजा करता है, और परिक्रमा के अंत तक पास रखता है। इतना ही नहीं, परिक्रमा पूरी होने के बाद भी उस दंड को श्रद्धापूर्वक अपने घर मे पूजता है।

🚩नर्मदे हर! 🚩नर्मदे हर! 🚩नर्मदे हर!

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